भरत मंदिर के बारे में

नगर के मध्य भाग में स्थित यह सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रसिद्ध मन्दिर है। इस मन्दिर का इतिहास ही वस्तुतः हृषीकेश का इतिहास है। स्कन्द पुराण केदार खंड के 115 से 120 अध्याय तक इस प्राचीन मन्दिर का विस्तृत वर्णन किया गया है।

17वें मन्वन्तर में इस स्थान पर तपोरत परम तेजस्वी रैभ्य मुनि के तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने स्वयं श्रीमुख से कहा मैं हृषीकेश नाम वाला सदा यहाँ स्थित रहूंगा। अतः इस क्षेत्र का दूसरा नाम हृषीकेश से अश्रित स्थल (हृषीकेषाश्रम) होगा।

कुब्जाम्रके महातीर्थे वसामि-रमया सह। हृषीकाणि पुरा जित्वा देशः संप्रार्थितस्त्वया।।
यद्वाहं तु हृषीकेशो भवाम्यत्र समाश्रितः। ततोऽस्या परकं नाम हृषीकेशाश्रितंस्थलम्।।

(स्कन्द पुराण केदार खंड 116/38 व 39)

सतयुग में वराह, त्रेता में परशुराम, द्वापर में वामन तथा कलियुग में भरत नाम से जो उपासना कर प्रणाम करेंगे, वे निश्चय ही मुक्ति के अधिकारी होंगे। (स्कन्द पुराण केदार खंड 116/42)

वराह पुराण के 122 वें अध्याय में इसी स्थान पर रैभ्य मुनि के तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु द्वारा आम के वृक्ष पर बैठकर दर्शन देने तथा भार से वृक्ष झुकने (कुब्ज-कुबड़ा होने) के कारण इस स्थान को‘कुब्जाम्रक’ नाम दिये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है। रैभ्य एक प्रसिद्ध मुनि हैं, जो कि भारद्वाज ऋषि के मित्र थे। इनके अर्वावसु तथा परावसु नाम के दो पुत्र हुए। पौराणिक उल्लेख के अनुसार भारद्वाज ऋषि ने एक बार भ्रम में पड़कर रैभ्य ऋषि को श्राप दे दिया, जिसके प्रायश्चित्त में जलकर भारद्वाज ने शरीर त्याग दिया। रैभ्य ऋषि के यशस्वी पुत्र अर्वावसु ने इन्हें पुनः अपने तपोबल से जीवित कर दिया।

श्रीमद्भागवत के अनुसार भारद्वाज ऋषि का लालन-पालन दुष्यन्त पुत्र भरत के संरक्षण में हुआ। भरत द्वारा 55 अश्वमेघ एवं राजसूय यज्ञ गंगा-यमुना के तट पर किए जाने का उल्लेख महाभारत में प्राप्त होता है, जिससे अनुमानित होता है कि उनमें से यह स्थान भी एक है। भारतद्वाज एवं धृताची नाम की अप्सरा से उत्पन्न द्रोणाचार्य का सम्बन्ध देहरादून से जोड़ा जाता है। महाभारत वन पर्व में इस पवित्रतम तीर्थ की महिमा सहस्त्रों गोदान फलों के बराबर बताई गयी है।

ततः कुब्जाम्रकं गच्छेत् तीर्थसेवी नराधिप।
गो सहस्त्रमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति।

(महाभारत वनपर्व 84/40)

वामन पुराण के 76 वें अध्याय में भक्त प्रहलाद द्वारा बदरिकाश्रम जाते समय इस स्थान पर भगवान हृषीकेश (भरत जी) की अर्चना किए जाने का उल्लेख है।

हृषीकेश समभ्यच्र्य ययौ बदरिकाश्रमम्।

(वामन पुराण)

गर्भगृह में स्थापित श्री शालिग्राम एवम् श्री कृष्ण प्रतिमाऐं

नरसिंह पुराण के 65वें अध्याय में इस स्थान को भगवान हृषीकेश (विष्णु) का प्रिय एवं पवित्रतम स्थान कहा गया है। सतयुग में परम तपस्वी ब्राह्मण सोमशर्मा के तप द्वारा भगवान विष्णु के दर्शन प्राप्त कर उनकी माया के चमत्कार को देखने का भी स्कन्द पुराण में विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। भारत भूमि में विधर्मियों तथा विदेशी आक्रान्ताओं के अत्याचारों से यह पवित्र मन्दिर भी अछूता नहीं रहा। समय-समय पर इसके पुनर्निर्माण एवं जीर्णोद्धार का कार्य होता रहा।