इस मन्दिर की महत्ता, पवित्रता एवं प्राचीनता को देखते हुए यह मान्यता है कि अक्षय तृतीया (वैशाख सुदी तीज) को हृषीकेश नारायण (श्री भरत भगवान) के दर्शन कर उनकी 108 परिक्रमा करने पर परम ऐश्वर्य तथा पुण्य लाभ प्राप्त होता है
आज भी अनेक भक्तजनों को परिक्रमा पूर्ण करने का प्रयास करते देखा जा सकता है। वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीया को ही सतयुग का प्रारम्भ भी हुआ है।
इस तिथि को मन्दिर की स्थापना से भी जोड़ा जाता है। इसी शुभ दिन भगवान के चरणों को भक्तों के दर्शानार्थ खुला रखा जाता है।
ऐसी मान्यता है कि अक्षय तृतीया के दिन जो भक्त्त यहां 108 परिक्रमा करके श्री भरत भगवान के चरणों के दर्शन करेगा, उसकी सभी मनोकामनायें पूर्ण होती हैं और भगवान श्री बद्रीनारायण के दर्शन का पुण्य - लाभ यहीं प्राप्त हो जाता है।
विक्रमी सम्वत् 846 (ई0 सन् 789) में जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य ने बौद्धों के अतिक्रमण से बचाने हेतु मायाकुण्ड में छुपाकर रखी हुई भगवान हृषीकेश नारायण श्री भरत जी महाराज की प्रतिमा को बसंत पंचमी के दिन मन्दिर में पुनस्र्थापित किया। यह मूर्ति शालिग्राम शिला पर निर्मित है।
तभी से हर वर्ष बसन्त - पंचमी के दिन शालिग्राम शीला से निर्मित्त इस प्रमिता को हर्ष उल्लास से मायाकुण्ड में पवित्र स्नान के लिये ले जाया जाता है एवं धूमधाम से नगर भ्रमण के बाद पुनः मन्दिर में आकर प्रतिष्ठत किया जाता है। इस उत्सव में सुदूर पर्वतीय अंचल से भक्तजन यहां पहुंच कर पुण्य लाभ अर्जन करते हैं।
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