पौराणिक महत्त्व

हृषीकेश अत्यन्त प्राचीन तीर्थ स्थल है। देवताओं से सम्बन्धित, ऋषि-मुनियों की तपस्थली तथा पर्वतों की तलहटी में प्रवाहित होती देवनदी गंगा के कारण यह स्थान अति पवित्र तीर्थ माना गया है। भूमि एवं जल के आलौकिक प्रभाव, ऋषियों की तपस्या व देव प्रभाव के कारण ही तीर्थत्व का प्रतिपादन होता है। हृषीकेश में उक्त सभी तत्व सन्निहित हैं, अतः यह परम तीर्थ है।

इस पवित्र तीर्थ के सम्बन्ध में धार्मिक ग्रन्थों में प्राप्त आख्यान के अनुसार 17वें मन्वन्तर में तपोरत रैभ्य मुनि को भगवान विष्णु ने आम्र (आम) का आश्रय लेकर दर्शन दिए तथा वर मांगने को कहा। सांसारिकता से विरक्त रैभ्य मुनि ने भगवान विष्णु से सदैव यहीं निवास करने की प्रार्थना की। प्रसन्न विष्णु ने हृषीकेश नाम से सदैव यहां विद्यमान रहना स्वीकार करते हुए कहा कि “हे मुनि! साक्षात् शंकराचार्य के रुप में शंकर मेरी पुनः स्थापना करायेंगे। कलियुग में इस पृथ्वी पर भरत नाम से लोग मुझे कहेंगे।

शंकरः शंकरः साक्षात् पुनर्मां स्थापयिष्यति। कलौ भरतनामानं वदिष्यन्ति महीतले।।

(स्कन्द पुराण केदार खंड 116/41)

हृषीकेश का अर्थ

हृषीक (इन्द्रिय) को जीतकर रैभ्य मुनि ने ईश (इन्द्रियों के अधिपति विष्णु) को प्राप्त किया, इसलिए (हृषीक+ईश अ+ई=ए गुण) हृषीकेश यह नाम सटीक ही है। बाद में उच्चारण दोष के कारण यह नाम ऋषिकेश में परिवर्तित हो गया। स्कन्द पुराण केदार खंड के अनुसार भगवान विष्णु द्वारा (कुब्ज-तिरछे+कुबड़े) आम्र (आम) का आश्रम देकर दर्शन देने के कारण इस क्षेत्र को ‘कुब्जाम्रक’ क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है। संकल्प में अब भी यही उच्चरित किया जाता है।

प्राप्त प्राचीन उल्लेख के अनुसार कभी यहाँ भयंकर आग लगी थी, जिससे कुपित शंकर ने अग्नि को श्राप दिया तथा अग्नि ने शंकर द्वारा प्रदत्त श्राप से मुक्ति हेतु यहाँ तप किया। इस कारण इसे अग्नि तीर्थ भी कहा गया है। केदारखंड पुराण के अनुसार सतयुग में सोमशर्मा ऋषि ने हृषीकेश नारायण की कठोर तपश्चर्या की, जिससे प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें वर मांगने को कहा। ऋषि ने भगवान विष्णु से वर प्राप्त कर उनकी माया के दर्शन भी यहीं प्राप्त किये।

मध्यकाल में यहां बहुत कम जनसंख्या थी। तीर्थ यात्रा के समय ही यात्रीगण आते, शेष समय केवल मन्दिर के पुजारी एवं तीर्थ पुरोहित ही रहते। सर्वत्र बेर एवं बांस की झाड़ियों के साथ आम के वृक्ष जहां-तहां थे। आठवी शताब्दी के लगभग यहां अनेक मन्दिरों के विद्यमान होने का संकेत मिलता है। गंगा की बाढ़, भूकम्प तथा मध्यकाल में मूर्तिभंजकों के कोप भाजन के कारण कई लुप्तप्राय हो गये है।