इस प्राचीन एवं पौराणिक मन्दिर के सम्बन्ध में जन-सामान्य में कई मान्यताएं तथा अनुश्रुतियां प्रचलित हैं-
अनुश्रुति है कि स्वर्गारोहण के समय पांचों पांडव द्रोपदी सहित यहां आए, कुछ समय तक विश्राम करके हृषीकेश नारायण का पूजन कर उत्तराखण्ड की यात्रा पर चल पड़े। महाभारत के उल्लेख के अनुसार पांडवों के पथ-निर्देशक ऋषि लोमश ने यहीं पर पांडवों को निर्देश दिया कि वे केवल अपनी आवश्यकता की सामग्री ही साथ रखें।
अशोक महान (लगभग 273-232 ई0पू0) के शासनकाल में बौद्ध धर्म का विस्तार पर्वतीय प्रान्त तक हो गया था। स्वयं भगवान बुद्ध भी इस क्षेत्र में पधारे। इस क्षेत्र के सभी मन्दिर बौद्ध मठों के रुप में परिवर्तित कर दिये गये, जिससे यह मन्दिर भी अछूता नहीं रहा। मन्दिर के समीप ही उत्खनन में प्राप्त पाषाण प्रतिमा को बुद्ध की बतायी जाती है। मन्दिर के सम्मुख यह मूर्ति अब भी वट वृक्ष के नीचे देखी जा सकती है।
भरत मन्दिर में हृषीकेश नारायण की अकेली चतुर्भुजी प्रतिमा होने के पीछे कारण यह है कि मुनि रैभ्य ने इन्द्रियों (हृषीक) को जीत कर विष्णु (ईश) प्राप्त किए।
सुप्रसिद्ध वैष्णव तीर्थ बद्रीनाथ, शैव तीर्थ केदारनाथ तथा उत्तराखण्ड के शक्ति पीठों के लिए प्राचीन काल में यहां से पैदल यात्रा की जाती रही। उक्त तीनों धार्मिक संप्रदायों के समन्वय के रुप में यह स्थान जाना जाता है। यही कारण है वैष्णव उपास्य नारायण प्रतिमा के साथ पातालेश्वर महादेव तथा समीप ही माहेश्वरी (भद्रकाली) मन्दिर इस धारणा की पुष्टि करते हैं। मन्दिर के परिक्रमा मार्ग में बनी विभिन्न पाषाण प्रतिमाओं से भी इस बात की पुष्टि होती है।
कवि मौलाराम रचित 'गढ़ राज्य वंश' काव्य से विदित होता है कि 1635 ई. में गढ़वाल नरेश महीपतशाह हरिद्वार के अर्द्धकुंभ मेले में जाते हुए दर्शन हेतु भरत मन्दिर में आए। हृषीकेश नारायण की 23 प्रतिमा की ओर देखते हुए उन्हें भ्रमवश लगा कि प्रतिमा उन्हें क्रुद्ध होकर देख रही है। कुपित राजा ने अपने साथ आए सैनिकों को आज्ञा दी कि हम तो श्रद्धावश हो दर्शनार्थ आए, किन्तु प्रतिमा हमें क्रुद्ध नयनों से देख रही है अतः नेत्र उखाड़ डालो। सैनिकों द्वारा नेत्र उखाड़ दिए जाने पर राजा बाद में अपने कृत्य पर अत्यधिक लज्जित हुए तथा भगवान से अपने कृत्य के लिए क्षमा मांगी व उन नेत्रों को यथास्थान लगाकर हरिद्वार की ओर चले गए। मार्ग में इस चित्तभ्रमी राजा ने कई साधु-सन्यासियों को भी मार डाला और अपनी राजधानी लौटकर भरत भगवान के प्रति किए गए इस अपराध के प्रायश्चित हेतु क्षत्रियोचित मार्ग का आलम्बन ले युद्धभूमि में प्राण त्याग दिए।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने हिमालय परिचय में कवि मौलाराम रचित काव्य की कविता में इस घटना को उद्धृत किया है।
यहां यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि महापंडित राहुल कई बार हृषीकेश आये। उन्होंने इस नगर के बारे में उक्त पुस्तक में निम्न उल्लेख किया है- "हृषीकेश कभी दस-पांच घरों का एक गामड़ा था, किन्तु अब तो वह अयोध्या के भी कान काटता है।"
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