प्रस्तावना

हृषीकेश नारायण श्री भरत भगवान

स्कन्द पुराण केदार खण्ड के अन्र्तगत इस प्राचीन मन्दिर का वर्णन इस प्रकार से है ।

कृते वाराहरुपेण त्रेतायां कृतवीर्यजम् ।
द्वापरे वामनं देवं कलौ भरतमेव च ।

(स्कन्द पुराण 116/42)

यहाँ पर रैभ्य ऋषि एवं सोमशर्मा की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उनको दर्शन दिये और उनके आग्रह पर अपनी माया के दर्शन कराये। ऋषि ने माया के दर्शन कर भगवान से प्रार्थना की, प्रभु आप माया से मुक्ति प्रदान करें। भगवान विष्णु ने तब वरदान दिया कि आपने इन्द्रियों (हृषीक) को वश में करके मेरी आराधना की है, इसलिये यह स्थान हृषीकेश कहलायेगा और मैं कलियुग में भरत नाम से विराजूंगा। हृषीकेश के मायाकुण्ड में पवित्र स्थान के बाद जो प्राणी मेरे दर्शन करेगा उसे माया से मुक्ति मिल जायेगी। ये ही हृषीकेश भगवान श्री भरत जी महाराज हैं।

विक्रमी सम्वत् 846 (ई0 सन् 789) के लगभग आद्य शंकराचार्य जी ने बसंत पंचमी के दिन हृषीकेश नारायण श्री भरत भगवान की मूर्ति को मन्दिर में पुनः प्रतिष्ठित करवाया। यह मूर्ति शालिग्राम शिला पर निर्मित है। तभी से हर वर्ष बसन्त - पंचमी के दिन भगवान शालिग्राम जी को हर्ष उल्लास से मायाकुण्ड में पवित्र स्नान के लिये ले जाया जाता है एवं धूमधाम से नगर भ्रमण के बाद पुनः मन्दिर में आकर प्रतीकात्मक प्रतिष्ठत किया जाता है। भक्तों का यह भी विश्वास है कि इस मन्दिर में अक्षय तृतीया के दिन जो 108 परिक्रमा करेगा और श्री भरत जी के चरणों के दर्शन करेग (क्योंकि केवल इसी शुभ दिन भगवान के श्री चरणों को भक्तों के दर्शनाथ खुला रखा जाता है) उसकी सभी मनोकामनायें पूर्ण होती हैं और भगवान श्री बद्रीनारायण के दर्शन का पुण्य - लाभ यहीं प्राप्त हो जाता है। श्रीमद्भागवत, महाभारत, वामन पुराण एवं नरसिंह पुराण में इस मन्दिर का उल्लेख है। भगवान विष्णु ही हृषीकेश नारायण श्री भरत जी महाराज हैं।